75 years and nothing changes (Hindi) Chanakya Forum 27th Oct 2021
पिछला हफ्ता ऑपरेशन गुलमर्ग की 75वीं वर्षगांठ के रूप में चिन्हित किया गया, जब पाकिस्तान ने आजादी के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास किया था। 22 अक्टूबर 1947 को, 6,000 से अधिक पाकिस्तानी हमलावरों ने, पाक सेना के साथ, नीलम नदी को पार किया और जम्मू-कश्मीर पर हमला किया। इनकी योजना थी कि हमलावरों की इस बढ़त से पाक सेना फायदा उठाये। कश्मीर, जो उस समय तक, सभी धर्मों के लोगों के आपस में सद्भाव से रहते हुए स्वर्ग के समान था, उसे एक वास्तविक नरक में बदल दिया गया। इससे सबसे पहले पीड़ित होने वाला शहर मुजफ्फराबाद था। उसके बाद बारामूला का नंबर आया।
राज्य बलों द्वारा प्रारंभिक हमलों का सामना किया गया, जिसमें दोनों ओर की कई टुकड़ियों ने अंतिम आदमी से अंतिम दौर तक लड़ाई की थी। राज्य बलों के चीफ ऑफ स्टाफ ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह को मरणोपरांत, स्वतंत्र भारत के पहले एमवीसी से सम्मानित किया गया। हमलावरों ने लूटपाट की, बलात्कार किये, अपहरण किये और सभी धर्मों के स्थानीय निवासियों को जान से मार दिया गया, हालांकि मारे जाने वाले लोगों में गैर-स्थानीय की संख्या ज्यादा थी। उन्होंने दावा किया कि वो मुक्तिदाता हैं, लेकिन वास्तव में वे बलात्कारी और हत्यारे थे।
75 साल बीत गए, लेकिन पाकिस्तान का रवैया वही रहा। छल, झूठ, बेगुनाहों को निशाना बनाने और राज्य की आतंकवादी नीति के रूप में शोषण करने के लिए वे एक ही है। एक राष्ट्र जिसने समय के साथ प्रगति नहीं की और जो अपने वैश्विक दृष्टिकोण को बदल नहीं सका, वह केवल नीचे की ओर ही जा सकता है और वह देश पाकिस्तान है।
1947 में, इसने यह अफवाहें फैलायी कि कश्मीर में मुसलमानों को बेरहमी से मारा जा रहा था और उन्हें छुड़ाना होगा। यह अफवाह फैला कर उन्होंने पश्चिमी कबायली इलाकों से हमलावर तैयार किये, जबकि यह क्षेत्र शांतिपूर्ण था, जिसमें हिंसा की कोई घटना नहीं हुई थी। यह फर्जी घटनाओं के बहाने से अपने ही देश के बेगुनाहों का ब्रेनवॉश करता था और कश्मीर में घुसाने के लिए उन्हें आतंकवादी बना देता था। जिंदा पकड़े गए हर आतंकवादी की पाकिस्तान के झूठ और छल की यही कहानी है, जबकि जमीनी हकीकत बहुत अलग है।
पाकिस्तान के ब्रेनवॉश किए गए आतंकवादियों और उसकी सेना की क्रूरता में 1947 के बाद से कोई बदलाव नहीं आया। मोहम्मद सईद असद ने अपनी पुस्तक ‘यादों के ज़ख्म’ में मुजफ्फराबाद और उसके आस-पास के क्षेत्र में हुए आक्रमण के चश्मदीद गवाहों का वर्णन किया है। ये हृदयविदारक हैं। हमलावरों ने बेरहमी से हत्याएँ की, लूटपाट की और बलात्कार किया। माता-पिता ने अपनी बेटियों को पाकिस्तानी हमलावरों के हाथों बुरी मौत से बचाने के लिए उन्हें खुद ही मार डाला या जहर दे दिया। युद्ध के अंत तक 35,000 से अधिक कश्मीरी उन पाक हमलावरों के हाथों अपनी जान गंवा बैठे, जिन्हें उनकी सेना का समर्थन प्राप्त था।
पाक सेना ने वर्ष 1971 तक तेजी से आगे बढ़ते हुए बांग्लादेश में 3 मिलियन से अधिक लोगों की हत्या की और वह 200,000 से 400,000 महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कारों की जिम्मेदार थी। बांग्लादेश ने प्रत्येक वर्ष 25 मार्च को विश्व नरसंहार दिवस घोषित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र का रुख किया है। अब समय आ गया है कि वैश्विक समुदाय बांग्लादेश के साथ खड़ा हो। नब्बे के दशक की शुरुआत में पाक आतंकवादियों ने कश्मीर में ऐसा ही किया, निर्दोष कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया, हज़ारों की हत्या की, जिसके परिणामस्वरूप पलायन हुआ।
फिलहाल बलूचिस्तान और वजीरिस्तान में बलूच और पश्तूनों के खिलाफ ऐसा ही हो रहा है। क्या दुनिया खामोश बैठी रहेगी और पाकिस्तान के अदृश्य शासन अथवा उसकी सेना द्वारा मानवाधिकारों का हनन जारी रहेगा। पाकिस्तान ने 1947 में कश्मीर में और 1971 में बांग्लादेश में जो किया उसके लिए उसने कभी माफी नहीं मांगी और अब उसके द्वारा अपने बलूच और पश्तून निवासियों से माफी मांगने की कोई संभावना नहीं है।
अपने आंतरिक कुकृत्यों को सही ठहराने के लिए पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने एक वैश्विक साक्षात्कार में कहा कि सभी पश्तून तालिबानी आतंकवादी हैं। इसी तर्ज़ पर पाकिस्तान के राजनयिकों ने भारत पर कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन का झूठा आरोप लगाया और आतंकवादी कार्यों को सही ठहराने की कोशिश की। एक भी वैश्विक संस्था ने पाकिस्तान के फर्जी दावों और आरोपों का समर्थन नहीं किया। इसके तथाकथित डोजियर को केवल कूड़ेदान में ही जगह मिलती हैं। पाकिस्तान झूठ बोलने के लिए ही जाना जाता है।
पाकिस्तान ने 1947 में अपने सभी समझौते तोड़ दिए। उसने 12 अगस्त 1947 को कश्मीर के महाराजा के साथ और उससे कुछ दिन पहले 04 अगस्त को कलात के खान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसने मार्च 1948 में बलूचिस्तान पर आक्रमण करके कलात के खान और ऑपरेशन गुलमर्ग से कश्मीर के महाराजा के साथ हुआ समझौता तोड़ दिया। इसने समझौते तोड़ने के अपने सिद्धांत का पालन करना जारी रखा है। इसने 9/11 के बाद अमेरिका से वादा किया था कि वह आतंकवादी गुटों को आश्रय नहीं देगा और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध में भाग लेगा। जबकि, इसने ओसामा बिन लादेन को एक राजकीय अतिथि के रूप में रखा और अमेरिका तथा सहयोगी गठबंधन बलों को निशाना बनाने में तालिबान का खुले तौर पर समर्थन किया, जबकि दावा यह किया कि युद्ध से उसे भी नुकसान हुआ है। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कोई स्वीकार नहीं करेगा।
यह पाकिस्तान ही था, जो 1948 में अपनी सेना को पीओके से पीछे हटाने से इनकार करके संयुक्त राष्ट्र के कश्मीर प्रस्ताव से अलग हो गया, जिससे यूएनएससी प्रस्ताव का यह पहला कदम बेमानी हो गया। आज 75 वर्ष बाद वो उसी प्रस्ताव के तहत कश्मीर की समस्या हल करने की मांग कर रहा है, जिसे उसने खुद लागू करने से इनकार कर दिया था। क्या कोई ऐसे देश पर भरोसा कर सकता है, जो महत्वपूर्ण क्षणों में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का पालन करने से इनकार करता है और दशकों बाद दोबारा मांग करता है कि इसे लागू किया जाए। कोई आश्चर्य नहीं कि दुनिया कश्मीर पर पाकिस्तान के आह्वान की अनदेखी करती है।
पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित लगभग सारे आतंकवादी समूहों और उनके नेताओं का घर है। यह आतंकवाद के लिए वन-स्टाप-शॉप के समान है। पिछले चार वर्षों से एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में इसके बने रहना इस बात का प्रमाण है कि 1947 के बाद से आतंकवादी गुटों के लिए इस देश के समर्थन में कोई बदलाव नहीं आया है। इस देश ने 1947 में अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए आतंकवादियों को नियुक्त किया, हालाँकि उन्हें लश्कर या रेडर्स कहा गया और यह सब आज भी जारी है। अपनी राज्य नीति को आगे बढ़ाने के लिए आतंकवादियों को नियुक्त करने वाला एकमात्र देश पाकिस्तान है। इस संबंध में जब तक विश्व स्तर पर कार्रवाई नहीं की जाती, पाकिस्तान नहीं बदलेगा।
‘विभाजन के 70 साल : जब जनजातीय योद्धाओं ने कश्मीर पर आक्रमण किया,’ शीर्षक से अक्टूबर 2017 में प्रकाशित बीबीसी के एक लेख में पाकिस्तान की कार्रवाइयों को उपयुक्त रूप से अभिव्यक्त किया गया है। इसमें उल्लेख है, कि ‘पाकिस्तान ने यही रणनीति 1965 में दोहराई। 1988-2003 के कश्मीरी विद्रोह में, साथ ही 1999 के कारगिल युद्ध में भी इसी रणनीति को दोहराया। इसने अफगानिस्तान में गैर-राज्य नेताओं का इस्तेमाल किया। लेकिन कश्मीर को आजाद कराने या अफगानिस्तान के वश में होने के स्थान पर इससे इनकी राजनीतिक प्रक्रियाएं कमजोर हो गयी, और न केवल कश्मीर और अफगानिस्तान में, बल्कि इससे पाकिस्तान में समाज का सैन्यीकरण हो गया। पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा का कमजोर होना, शासन और इसके प्रांतों द्वारा स्वतंत्रता की बढ़ती मांग इसलिए है, क्योंकि पाकिस्तान ने अपने अधिकांश धन को विकास कार्यों की बजाय गैर-राज्य नेताओं का समर्थन करने में लगा दिया।
1947 में पाक ने हमलावरों को आगे रखते हुए, इनकी सफलता का फायदा उठाने के लिए अपनी सेना को इनके पीछे रखा। इसने 1965 में भी यही रणनीति दोहराई, जबकि 1999 में इसने अपनी सुन्नी बहुल सेना को सुरक्षित रखते हुए कारगिल में शिया बहुल नॉर्दर्न लाइट इन्फैंट्री को तैनात किया। अल्पसंख्यकों/आतंकवादियों/मिलिशिओं को इस गलत काम के लिए नियुक्त करते हुए पाकिस्तान ने अपनी सेना को ज्यादातर पृष्ठभूमि में ही रखा। हर बार जब भी इसकी सेना आगे (1971) रही, इसे हार का सामना करना पड़ा है।
पाकिस्तान, जो अपनी भू-रणनीति का फायदा उठा सकता था और एक क्षेत्रीय शक्ति बन सकता था, हर क्षेत्र में पिछड़ गया है। वर्तमान में इसे नजरअंदाज किया जा रहा है, एक अछूत के रूप में माना जाता है और यह भिक्षा और ऋण पर जीवित रहने के लिए मजबूर है। यह सब इसलिए है,क्योंकि 75 वर्षों के बाद भी यह अपने दृष्टिकोण को बदलने और स्वीकार्य और परिपक्व वैश्विक नीतियों को अपनाने में विफल रहा है।
Last week marked the 75th anniversary of the launch of Operation Gulmarg, which was Pakistan’s attempt at capturing J and K, immediately after Independence. On 22nd Oct 1947, over 6000 Pakistan raiders, with elements of the Pak army embedded within, crossed the Neelum river and attacked J and K. The plan was that headway by the raiders would be exploited by the Pak army. Kashmir, which was a paradise till then, with members of all religions living in harmony, was converted into a veritable hell. Muzaffarabad was the first city to suffer, followed by Baramulla.
The initial onslaught was faced by state forces with many detachments in isolation fighting to last man, last round. Brig Rajinder Singh, the chief of staff of the state forces, was awarded independent India’s first MVC, posthumously. The raiders plundered, looted, raped, kidnapped and killed local residents, irrespective of religion, though emphasis remained on non-locals. They claimed themselves as liberators but were in reality, rapists and murderers.
75 years have passed but the approach of Pakistan has remained the same, which is one of deceit, lies, targeting innocents and exploiting terrorism as an instrument of state policy. A nation which refuses to progress with time and change its global outlook can only slide downhill and that is Pakistan.
In 1947, it created raiders from its western tribal belts by spreading rumours that Muslims were being mercilessly killed in Kashmir and they were to rescue them, whereas the region was peaceful, with no incidents of violence. It continues to brainwash innocents in its own country on a similar pretext of fake incidents and converts them into terrorists to be launched into Kashmir. Every terrorist captured alive has the same tale of Pakistan’s lies and deceit and that the reality on ground is vastly different.
The brutality of Pak brainwashed terrorists and its army has not changed since 1947. Mohammad Saeed Asad in his book Yaadon ke Zakhm collates eyewitness accounts of the invasion in Muzaffarabad and its environs. These are heartrending. The raiders killed, looted and raped mercilessly. Parents killed or poisoned their daughters to save them from an even worse death at the hands of Pak raiders. At the end of the war over 35,000 Kashmiri’s lost their lives to Pak raiders backed by their army.
Fast forward to 1971. The Pak army, in Bangladesh, was responsible for killing over 3 million people and raping between 200,000 to 400,000 women. Bangladesh every year approaches the UN to declare March 25th as world genocide day. It is time the global community stands alongside Bangladesh. Pak terrorists did the same in Kashmir in the early nineties, targeting innocent Kashmiri Pundits, killing thousands, resulting in a migration.
Currently, the same is ongoing in Baluchistan and Waziristan against the Baloch and Pashtuns. Will the world continue sitting silently while human rights violations continue by either proxies of the Pakistan deep state or its own army. Pakistan never apologized for what it did in Kashmir in 1947 and in Bangladesh in 1971 and it is unlikely to apologize to its own Baloch and Pashtun residents.
To justify its internal misdeeds Pakistan’s Prime Minister, Imran Khan, states in a global interview that all Pashtuns are Taliban terrorists. In a similar vein, Pakistan diplomats falsely accuse India of human rights violations in Kashmir seeking to justify terrorist actions. Not a single global body supports Pakistan’s fake claims and accusations. Its so-called dossiers only end up in dustbins. Pakistan is known to lie.
Pakistan broke all its agreements in 1947. It had signed an agreement with the Maharaja of Kashmir on 12 Aug 1947 and with the Khan of Kalat a few days prior on 04 August. It broke the agreement with the Maharaja of Kashmir by launching Operation Gulmarg and with the Khan of Kalat by invading Baluchistan in Mar 1948. It continues to follow the same principle of breaking agreements. It promised the US not to host terrorist groups and participate in the global war on terror, post 9/11. However, it maintained Osama Bin Laden as a state guest and openly supported the Taliban in targeting US and coalition forces, while claiming it also suffered losses in the war, a fact no one accepts.
In 1948, it was Pakistan which backed out of the UN resolution on Kashmir, by refusing to move its army out from POK, the first step in the UNSC resolution, making it redundant. Today, after 75 years, it demands Kashmir be resolved under the same resolution, which it itself refused to implement. Can anyone trust a country which refuses to adhere to UN resolutions at the crucial moment and subsequently decades later demands that it be implemented. No wonder the world ignores Pakistan’s calls on Kashmir.
Pakistan is home to almost all UN proscribed terrorist groups and their leaders. It is akin to being a one-stop-shop for terrorism. Its remaining on the FATF Grey List for the past four years is testimony that the nation’s backing to terrorist groups has not changed since 1947. The nation had employed terrorists, though termed them as Lashkars or Raiders, to further its national aims in 1947 and continues to do so even today. The only country which employs terrorists to further its state policy is Pakistan. Unless globally taken to task, Pakistan will not change.
Pakistan’s actions have been aptly summed up in a BBC article titled, ‘Partition 70 years hence: when tribal warriors invaded Kashmir,’ published in Oct 2017. It mentions, ‘Pakistan repeated this strategy in Kashmir in 1965, during the Kashmir insurgency of 1988-2003, as well as in the Kargil War of 1999. It also used non-state actors in Afghanistan. But instead of liberating Kashmir or taming Afghanistan, it has led to the weakening of political processes, and has militarised society not only in Kashmir and Afghanistan, but also in Pakistan.’ The weakening of Pakistan’s internal security, its governance and increasing demands for freedom by its own provinces is because Pakistan has devoted most of its funds towards supporting non-state actors rather than development.
In 1947, Pak pushed raiders ahead, while keeping its army behind to exploit their success. It repeated the same tactics in 1965, while in 1999, it deployed the Shia majority Northern Light Infantry in Kargil, keeping its Sunni dominated army safe. Pakistan has mostly kept its army in the background, while employing minorities/ terrorists/ militias to do their dirty work. Every time its army has been at the forefront (1971) it has suffered defeat.
Pakistan, which could have exploited its geostrategic advantage and become a regional power has slipped in every sphere. It is currently being ignored, treated as a pariah and forced to survive on alms and loans. All this because it has failed to alter its outlook and adopt acceptable and mature global policies even after 75 years.